कबीरदास संत, कवि व समाज-सुधारक थे



कौन थे कबीरदास के गुरू- कबीरदास जो कि एक संत होने के साथ-साथ  एक समाज सुधारक भी थे।। कबीरदास जी के गुरू का नाम स्वामी रामानन्द था।
गृहस्थ जीवन- कबीरदास ने गृहस्थ जीवन भी व्यतीत किया, इनकी पत्नी का नाम लोई था। इनके एक पुत्र और एक पुत्री थी, जिनका नाम कमाल और कमाली था। 
 
कबीरदास का जन्म— सन् 1398 ई0 (लगभग) में हुआ। इनका पालन-पोषण नीरू और नीमा जुलाहा द्वारा किया गया। इनके जीवन के बारे में बताया जाता है। कि इनका जन्म एक विधवा से हुआ जो लोक-लज्जा के कारण इन्हें काशी में एक तालाब के किनारे (लहरतारा तालाब) में छोड़ गयी थी।

कबीरदास जी के जन्म के बारे में अलग-अलग मत है। कुछ विद्वान इनका जन्म काशी व कुछ विद्वान, मगहर और कुछ विद्वानों के अनुसार इनका जन्म आजमगढ़ में बताते है।  कबीर दास जी का दोहा
 
चैदह सौ पचपन साल गए, चन्द्र वार।
जेठ सुदी बरसाइत को, पुसमासी प्रकट भये।।

कबीरदास एक समाज सुधारक थे— कबीरदास एक फक्कड़ स्वभाव के संत व कवि थे। इन्होंने धर्म एवं बाहृय पांखडों का घोर विरोध किया। हिन्दु-मुस्लिम दोनों इनके समर्थक थे।

लोगों के भ्रम को मिटाने के लिए कबीरदास का प्रयास- वे जानते थे कि लोग भ्रम में अभी भी जकड़े हुए है। उन्होंने अपना अधिक समय काशी में बिताया था, उस समय लोगों के मन में यह विश्वास था कि जिसकी मृत्यु काशी में होती है। उसे मोक्ष या स्वर्ग की प्राप्ति होती है। और इसके विपरीत जिसकी मृत्यु मगहर में होती है, उसका अगला जन्म बंदर का होता है।

इसी भ्रम को मिटाने के लिए कबीरदास जी ने अपनी मुत्यु के लिए मगहर स्थान को चुना। ताकि लोगों का यह भ्रम दूर हो सके। जो लखनऊ से लगभग 120 कि0मी0 की दूरी पर स्थित है। मगहर में उनके अंतिम संस्कार के समय हिन्दू और मुसलमान आपस में लड़ने लगे।

जब उनके मृत शरीर से चादर हटाई गई तो वहाँ पर केवल फूल मिले जिसे हिन्दू और मुस्लमान धर्म के लोगों ने आपस में बाँट लिया और अपने-अपने धर्म के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया। सन् 1518 ई0 (लगभग) 120 वर्ष की अवस्था में कबीरदास का देहान्त मगहर में हुआ

कबीरदास एक संत थे, जहाँ उनकी मुत्यु हुई वह स्थान मगहर है। जहाँ पर कबीरदास जी समाधी और मज़ार दोनों है। वे किसी भी जाति, धर्म में किसी भी प्रकार का भेद-भाव नहीं रखते थे। हिन्दू, मुसलमान, और सिक्स और अन्य धर्मो को वे समान मानते थे।

कबीरदास की प्रमुख रचनाएँ– साखी, सबद और रमैनी है।

कबीरदास की भाषा— कबीरदास की भाषा मुख्यतः हरयाणवी, राजस्थानी, खड़ी बोली, ब्रज भाषा और अवधी भाषा का मिश्रित रूप है।

कबीरदास के दोहे इस प्रकार है।

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोई ।।

अर्थात— कबीरदास जी कहते है कि जब में बुराई को खोजने संसार में निकला तो मुझे कोई भी बुरा नही मिला। तथा जब मैनें अपने अन्दर झाँक कर देखा तो पाया कि मेरे से बुरा कोई नही है।

साँच बरावर तप नही, झूँठ बराबर पाप ।
जाके हिरदे साँच है।, ताके हिरदे आप ।।

अर्थात— कबीरदास जी कहते है कि सच के बराबर काई तप नही, और झूठ से बड़ा कोई पाप नही है। जो व्यक्ति सदैव सच बोलने वाला होता है। उसके हृदय मेें सदैव भगवान रहते है।

अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप ।
अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप
।।

अर्थात— कबीरदास जी कहते है कि न तो अवश्यकता से अधिक बोलना ही अच्छा है। और न ही चुप रहना अच्छा है। जिस प्रकार अत्यधिक बरसात भी अच्छी नही होती उसी प्रकार अत्यधिक धूप भी अच्छी नही होती।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।


अर्थात— कबीरदास जी कहते है कि बडे़-बडे़ किताबो और गं्रथो को पढ़कर व्यक्ति विद्वान नही बनता संसार में कई ऐसे लोग हुए है। जो किताबो और गं्रथो को पढ़कर मुत्यु के द्वार तक जा पहुँचे है। यदि कोई व्यक्ति प्रेम के ढाई अक्षर को पढ़ ले तो वही सबसे बड़ा पंडित है।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मनका फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका  फेर ।।


हाथ में मोतियो की माला को लेकर अधिक समय तक जपने से कोई फाइदा नही होता जप तो मोतियो की माला रहे है। लेकिन मन तो कही ओर ही है। कबीर दास जी कहते है कि हाथ की माला फेरने के बजाय मन की माला जपना चाहिए।

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