हिन्दु धर्म की परम्परा सदियों पुरानी रही है, जहाँ किसी प्रकार के शुभ कार्य का प्रारम्भ करने से पहले स्वास्तिक एवं कलश को शुभता के प्रतीक के लिए अवश्व उपयोग किया जाता है। स्वास्तिक का अर्थ है, आनन्द और सुख देने वाला चतुष्पथ चौराहा।
स्वास्तिक को साधारण भाषा में सतिया भी कहते है, स्वास्तिक चिन्हृ् बनाने के लिए चार गामा समकोण पर यदि एक दूसरे को मिला दिया जाय तो स्वास्तिक चिन्ह् बन जाता है, यही कारण है, कि इसे गामाडियम भी कहा जाता है। किसी भी शुभ कार्य जैसे नये मकान में प्रवेश किसी बिजनेस का प्रारम्भ करते समय स्वास्तिक चिन्ह् को बनाया जाता है, मान्यता है, कि मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक का चिन्ह् बने होने से दुष्ट शक्तिया भवन के अन्दर प्रवेश नही करती है।
पवित्र वस्तुओं पर स्वस्तिक चिह्न का अंकन
स्वास्तिक का चिन्ह् प्राचीन समय से ही पवित्र वस्तुओं पर अंकित किया जाता है, यह प्राचीन देव मंदिरो और शिलालेखो, ध्वजा पताकाओ, मूर्तियों के सिंहासनो, वेदो एवं पेठिका पर इस चिन्ह् को देखा जा सकता है, हिन्दु धर्म के अलावा बोद्ध धर्म में भी स्वास्तिक चिन्ह् का अत्यधिक महत्व है, भगवान बुद्ध की एडियों और अंगुलियों में स्वास्तिक का चिन्ह् अति सम्मान जनक है।
कलश का महत्व धार्मिक कार्यो में
कलश को सुख-समृद्धि,मंगल कामनाओं एवं वैभव का प्रतीक माना जाता है, अनेक धार्मिक शुभ अवसरो पर जैसे नवरात्र, गृह प्रवेश नया व्यापार प्रारम्भ करते समय कलश की स्थापना की जाती है। इस प्रकार के शुभ कार्य को करने के लिए कलश में जल भरकर कलश के अंदर दुर्वा, कुश, पुष्प और सुपारी आदि रखा जाता है, उस पर स्वास्तिक का चिन्ह् अंकित करके कलश के उपरी भाग में पीपल, आम, बड, तथा मौल श्री आदि वृक्षों में से किसी एक वृक्ष की पत्तियों को कलश में लगाया जाता है, तथा उसके उपर चावल से भरा हुआ पात्र एवंम चावल भरे हुये पात्र के उपर एक जटायुक्त नारियल को रखा जाता है।
कलश की स्थापना के लिए मिट्टी या तांबे का पात्र ही अति उत्तम माना जाता है, वेदों में भी कलश के पुजन का विस्तार उल्लेख मिलता है। ऋगवेद में भी कलश का उल्लेख मिलता है, इसका संबंध इंद्र माना गया है, जहाँ उल्लेखित है, कि यजमान का कलश छल-छला रहा है, मानो कि समृद्धिप्रद शक्ति से भर दिया गया है। इसी प्रकार यजुर्वेद संहिता में भी कलश के साथ कमल पुष्प का उल्लेख किया गया है।
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