जगन्नाथ मंदिर भगवान विष्णु के चारधामों में से एक धाम है, जो भारत के ओडिसा राज्य में स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण जी को अर्पित है। जगन्नाथ धाम को पुराणों में धरती का बैकुंठ कहाँ गया है, जगन्नाथ को पहले नीलमाधव नाम से जाता था, जो सबर जनजाति के लोगों के देवता थे, इन लोगों द्वारा नीलमाधव की पूजा-अर्चना की जाती थी, इस पवित्र धाम को निलाचंल, नीलगिरी, निलाद्री, पुरुषोतम, श्री क्षेत्र, शेख क्षेत्र, जगन्नाथ और जगन्नाथ पूरी के नाम से भी जाना जाता है। पूर्व का द्वार जहाँ से मंदिर में प्रवेश किया जाता है के द्वार पर एक बड़ा सिंह है, इसलिए इसे सिंहद्वार भी कहा जाता है, दक्षिण का द्वार अश्व द्वार, उत्तर का द्वार हस्ति द्वार और पश्चिम का द्वार व्याघ्र द्वार के नाम से जाना जाता है।
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा—
भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा जग विख्यात् है। देश के सभी प्रान्तों से दर्शक भगवान जगन्नाथ की यात्रा में शामिल होने आते है। इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ स्वंम भक्तों से मिलने के लिए मंदिर से बाहर आते है। रथ यात्रा को अषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को प्रारम्भ किया जाता है, इस रथ यात्रा में सबसे पहले पवित्र नीम की काष्ठ से तीन रथों को तैयार किया जाता है। फिर रथों को सुन्दर एवं भव्य ढंग से सजाया जाता है।
इन तीन रथों में भगवान जगन्नाथ के बड़े भाई बलभद्र बहन सुभद्रा तथा स्वंम भगवान जगन्नाथ विराजते है। इसमें प्रत्येक रथ का रंग भिन्न होता है। बलभद्र जी के रथ का रंग लाल व हरा बहन सुभद्रा जी के रथ का रंग लाल व काला तथा भगवान जगन्नाथ जी के रथ का रंग लाल व पीला होता है। तीनों रथों के तैयार होने के बाद मंदिर के पुरोहित या मठाधीश द्वारा चाँदी के बर्तन में पवित्र जल से तीनों रथों पर छिड़काव किया जाता है, तथा रथों को पवित्र किया जाता है, तत्पश्चात् रथों में मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। मान्यता है कि आषाढ़ के महिने में भगवान जगन्नाथ अपने मौसी के घर गुंडिचा जाते है। गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इन्द्रद्युम्र की पत्नी थी यहाँ भगवान 8 दिन रहते है।
यह रथ यात्रा 5 किलोमीटर क्षेत्र में पुरुषोत्तम क्षेत्र में होती है। दस दिन पश्चात् रथ वहाँ से वापस लौटता है जिसे उल्टा रथ कहते है। रथ यात्रा समापन के पश्चात् रथों को तोड़ दिया जाता है। मान्यता है, कि इस लकड़ी को घर में रखने से दुष्ट आत्मा तथा संकट नही आते। इसलिए लोग इन लकडियों से घर के दरवाजे, खिड़की बनाते है।
मान्यता है, कि भगवान विष्णु जब चारों धामों की यात्रा पर निकलते है तो उत्तराखण्ड धाम बद्रीनाथ में स्नान करते है, गुजरात के द्वारिका में वस्त्र धारण करते है, पुरी में भोजन करते है तथा रामेश्वरम में विश्राम करते है। द्वापर के बाद भगवान श्री कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और जगन्नाथ बन गये, यहाँ भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र, तथा बहन सुभद्रा के साथ विराजते है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार-
एक दिन मालवा नरेश इंद्रद्युग्न को सपने में एक मूर्ति दिखाई दी, उसने फिर भगवान विष्णु की अराधना की भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पूरी के समुद्रतट पर जाये जहाँ उसे एक लकड़ी (दारु) का लठ्ठा मिलेगा उसी लकड़ी से ही तुम मूर्ति का निर्माण करना मालवा नरेश इंद्रद्युग्न ने वैसा ही किया, उसे वह लकड़ी का लठ्ठा मिल गया, तथा उसने देखा कि कुछ ही दूरी पर एक बढ़ई बैठा है, जो मूर्तियों को बना रहा है। उसने उस बढ़ई को बुलाया तथा मूर्ति बनाने के लिए कहा, बढई तैयार हो गया उसने कहा कि मेरी एक शर्त है मूर्ति को बनाने के लिए एक माह का समय लगेगा तब तक वह एक बंद कमरे में रहेगे जहाँ राजा तथा राजा के कोई भी व्यक्ति प्रवेश नही करेगा। यदि किसी ने वहाँ प्रवेश किया तो वह काम को छोड़कर चल देगे। काफी समय पश्चात् जब कमरे से कोई आवाज नही आयी तो राजा ने खिड़की से झाक कर देखा तो बढ़ई ने दरवाजा खोला और बताया कि मूर्ति का कार्य अभी अपूर्ण है। मूर्ति के हाथ बनाने शेष रह गये है, राजा को बहुत अफसोस हुआ बढई बोला कि यह सब दैवीय कृपा से हुआ है, और कहा कि मूर्ति का पूजन इसी रूप में होगा, उसके बाद वह बढ़ई न जाने कहाँ चला गया। तब इस स्थान पर तीन मूर्तिया जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की स्थापना की गयी।
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