संत ज्ञानेश्वर का जन्म महाराष्ट्र के जिला औरंगाबाद में सन् 1275 ई0 में हुआ। इनके पिता का नाम विट्ठल पंत एंव माता का नाम रुक्मिणी बाई था। अपने विवाह के कुछ दिन पश्चात् इन्होंने संन्यास ले लिया। परन्तु जब इनके गुरु रामानन्द स्वामी को पता चला इनकी शादी हो गयी है, तो इन्होंने इन्हें गृहस्थ जीवन यापन करने को कहा, तत्पश्चात् इन्होंने गुरु से आज्ञा लेकर गृहस्थ जीवन प्रारम्भ किया। कुछ समय पश्चात् इनके तीन पुत्र निवृतनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान एवं पुत्री मुक्ता बाई हुई।
इन्हें निरंतर समाज द्वारा प्रताडित किया गया। इनके प्रति लोगों का व्यवहार अछूतों की तरह था, जब इन्होनें तीनों पुत्रों का जनेउ संस्कार करना चाहा तो गांव के विद्वान पण्डितों इनकी बात से सहमत नही हुये, वे इन्हें संन्यास जीवन में प्रवेश करने के बाद फिर से गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने पर अछूत मानने लगे। जिससे विद्वान पण्डितों ने उन्हें देहत्याग करने को कहा। अपने पुत्रों व पुत्री के जीवन को सफल चाहने के लिए इन्होंने तथा इनकी पत्नी ने देहत्याग कर दिया, ताकि इसके पुत्र व पुत्री समाज में अच्छा मान सम्मान प्राप्त कर पाये।
इनके तीनों पुत्रो निवृतनाथ, ज्ञानदेव तथा सोपान एवं पुत्री मुक्ता बाई के सिर से माता-पिता का छाया छूट गया।, अपने बाल्यकाल से ही इन्हें अनेक कष्ट सहने पडे़। शुद्धिपत्र के लिए चारों भाई बहन, धर्मक्षेत्र पैठन में गए, जहाँ पर विद्वान पंडितो द्वारा इनका उपहास उडाया गया। मान्यता है कि तब इन्होंने विद्वान पंडितों के सम्मुख भैंस के मुख से वेदोच्चारण कराया था। जिसे देखकर विद्वान पंडित दंग रह गये। और उन्होंने इनसे कहा कि तुम तो जन्म से ही शुद्ध हो इनके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता कहा रह जाती। फिर भी मैं तुम्हें शुद्धिपत्र देता हूँ। विद्वानों द्वारा चारो भाई बहिन को शक संवत 1209 (सन् 1287) में शुद्धिपत्र दिया गया।
शुद्धिपत्र को लेकर चारों भाई-बहन नेवासे गांव में गये। इन्होंनें धर्मग्रंथ भागवत गीता जो संस्कृत में थी, स्थानी भाषा मराठी में रचना की क्योंकी उस समय कई लोगों को संस्कृत का ज्ञान न होने के कारण वे इन धर्मग्रंथों के ज्ञान से वंचित रह जाते थे। इनकी इस रचना का नाम ज्ञानेश्वरी (भावार्थदीपिका) था। इसके पश्चात् इन्होंने अमृतानुभव नामक दूसरे ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ की रचना करने के पश्चात् चारो भाई बहन पूणे के निकट आलंदी गये यहाँ पर इन्होनें योगिराज चांगदेव को 64 पदो में एक पत्र लिखा ये पत्र आज भी महाराष्ट्र में चांगदेव पासष्ठी के नाम से प्रसिद्ध है।
निवृतनाथ ने अपनी जीवित अवस्था में ही समाधी लेने का निर्णय बना लिया जब इनकी आयु मात्र 21 वर्ष की थी। इनके भाई ज्ञानदेव को अंतिम वंदन किया
संत ज्ञानेश्वर ग्रंथ
ज्ञानेश्वर द्वारा रचित कृतिया 'ज्ञानेश्वरी' ‘अमृतानुभव’ ‘चांगदेव पासठी’ तथा ‘अभंग’ आदि है।
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