श्यामाचरण लाहिड़ी जी ने द्रोणागिरी पर्वत की गुफाओं में ली थी क्रिया योग की दीक्षा

भारतवर्ष में समय-समय पर अनेक साधु-संन्यासी हुये है, जिन्होनें हमेशा समाज को नई दिशा एवं ज्ञान प्रदान किया है। इनमें से एक है, श्यामाचरण लाहिड़ी जी इनका जन्म 30 सितंबबर 1828 में पश्चिम बंगाल कृष्णनगर के घुरणी गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम गौरमोहन लाहिड़ी जमीदार होने के साथ-साथ योग में पारंगत थे, इनकी माता का नाम मुक्तेशवरी जो शिवभक्त थी, इसकी शिक्षा काशी में हुई। इसके पैतृक स्थान में जलंगी नदी बहती थी, जिसने अचानक अपना मार्ग बदल दिया इस घटना के कारण इनका घर नदी में डूब गया। कुछ समय पश्चात् इनके पिता अपने परिवार के साथ काशी चले गये। काशी में बंगालीटोला नामक भवन में परिवार के साथ रहने लगे, यहाँ पर श्यामाचरण लाहिड़ी ने बाग्ला, हिन्दी, अंग्रजी और फारसी आदि भाषाओं की शिक्षा प्राप्त की


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इनका वैवाहिक जीवन

इसी बीच इनके पिता गौरमोहन लाहिड़ी की मित्रता अपने पड़ोसी श्री देव नारायण सानयाल से हुयी। जो बाद में सम्धी बन गये। श्री देव नारायण सानयाल की पुत्री का विवाह इनके पुत्र श्यामचरण लाहिड़ी से हुआ। इनकी पत्नी का नाम काशीमणी देवी था।

रानीखेत में द्राणागिरी पर्वत के पास एक अनजान युवक से भेंट जो लाहिड़ी महाशय को उनका नाम लेकर पुकार रहे थें 

इन्होनें 23 साल की उम्र में सेना में इंजीनियरिंग शाखा के पब्लिक वक्र्स विभाग में कलर्क का काम किया, कुछ समय पश्चात् इसका तबादला अल्मोड़ा जिले के रानीखेत में हुआ ये अपने परिवार को छोड़कर रानीखेत पहुँचे, यहाँ पर इन्होनें अपना कार्यभार सम्भाला तथा कुछ दिनों बाद ये कभी-कभी हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखने के के लिए दूर-दूर तक पैदल जाते थे, एक दिन लाहिड़ी महाराज पहाड़ी रास्तों से गुजर रहे थे, तभी अचानक उन्हें किसी ने नाम लेकर पुकारा वे आश्चर्य में थे, कि इस अनजान जगह पर तो उन्हें कोई पहचानता तक नही है, उनका नाम लेकर कौन पुकार रहा है, तभी उन्होनें देखा कि एक युवक पहाड़ी पर खड़ा है, जो उन्हें हाथ के इशारे से बुला रहा है, जब लाहिड़ी महाशय उनके पास पहुँचते है, तो वह युवक लाहिड़ी से कहता है, कि तुमने मुझे पहचाना नही लाहिड़ी महाशय कहते है नही महाराज तब युवक लाहिड़ी महाशय को गुफा के अन्दर ले जाते है, और कम्बल और कमंडल दिखाकर कहते है कि इन वस्तुओं को पहचाना लाहिड़ी महाशय कहते है, नही महाराज मैनें नही पहचाना और कहते है, कि महाराज मैं तो आपको भी नही पहचान पा रहा हूँ।

लेकिन आप तो मेरा नाम भी जानते है, तब युवक ने कहा मैं तुम्हें बहुत समय पहले से जानता हूँ इसलिए तुम्हें दानापुर से यहाँ बुलाया है। कार्य पूर्ण होने पर तुम वापस दानापूर चले जाओगे। लाहिड़ी महाशय बडे़ ही असमंजस में थे, वे समझ नही पाये रहे थे, कि आखिर बात क्या है। तब युवक ने लाहिड़ी महाशय के सिर पर अपने हाथों से स्पर्श किया। जिससे लाहिड़ी महाशय को पूर्व जन्म का स्मरण हो गया। तथा उन्हें स्मरण हुआ कि इस स्थान पर वे अगले जन्म में तपस्या करते थे। लाहिड़ी महाशय ने युवक को प्रणाम किया ओर बोले हाँ महाराज अब मैंने आप को पहचान लिया है, आप मेरे गुरुदेव है। तथा ये गुफा मेरी साधना की जगह है।

इस प्रकार युवक ने लाहिड़ी महाशय से कहा कि अब तुम्हारी शुद्धि होगी। उसके बाद लाहिड़ी महाशय ने युवक (अपने गुरुदेव) से क्रिया योग की दीक्षा ली। कुछ समय बाद गुरुदेव ने लाहिड़ी महाशय से कहा कि तुम्हारा कार्य संम्पन्न हो गया है। अब तुम्हें यहाँ से वापस जाना होगा। यद्यपि लाहिड़ी महाशय अब वापस नहीं जाना चाहते थे। गुरुदेव ने इनसे कहाँ कि गृहस्थ लोग भी तुम्हें देखकर योग का लाभ उठा पायेगे। गृहस्थ मनुष्य भी योगाभ्यास द्वारा चिरशांती प्राप्त कर योग के उच्चतम शिखर पर आरूढ़ हो सकते है।
इन्हें दीक्षा देने वाले बाबाजी थे। दीक्षा लेने के पश्चात् कई सालो तक इन्होंने सरकारी नौकरी की सन् 1880 में ये नौकरी से रिटायर हुए तथा काशी आये जहाँ इन्होनें वेदान्त, सांख्य, वैशेषिक, योगदर्शन की रचना की।

लाहिड़ी जी ने कैसे मदद की अंग्रेज साहब की

विवाह के उपरान्त इन्होंने सेना में इंजीनियरिंग शाखा के पब्लिक वक्र्स विभाग दानापुर स्थान में एकांउट के पद पर कार्य किया, इस स्थान पर लोग इन्हें पगला बाबू के नाम से पुकारते थे, एक दिन जब ये अन्य दिनों की भाँती फाइलों को लेकर अंग्रेज साहब के कमरे में गये, और अन्दर आने की अनुमति माँगी लेकिन साहब के कमरे से कोई आवाज न आयी तब इन्होनें फाइल को टेबल पर रख दिया, तथा बाहर आ गये। फिर कुछ समय पश्चात् ये दोवारा फाइल लेकर साहब के पास गये, इन्होनें देखा कि अंग्रेज साहब काफी परेशान है, वे बोले आज काम में मन नहीं लग रहा है, आप जा सकते है, लाहड़ी महाशय ने साहब से विनम्रता पूर्वक पूछा कि सर क्या परेशानी है, मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताये। फिर साहब बोले इंग्लैंड से पत्र आया है, मेरी पत्नी की तबियत खराब है, लाहिड़ी महाशय बोले तभी मैं सोच रहा था कि आज साहब फाइलो को हाथ क्यों नही लगा रहे है, फिर लाहड़ी ने कहा ठीक है, सर मैं ठोड़ी देर बाद आता हूँ, और फिर वहाँ से चल दिये। साहब पगला बाबू की बात सुनकर मुस्कराने लगे।

कुछ समय पश्चात् अंग्रेज साहब लाहिड़ी (किराना बाबू) से कहते है कि आज बिल्कुल काम नही होगा, लाहिड़ी महाशय बोले सर चिन्ता की कोई बात नही है। मैम साहब बिल्कुल ठीक हो गयी है। आज मैम साहब आपको पत्र लिख रही है, टिकट मिलते ही जहाज से भारत के लिए रवाना हो जायेगी। साहब बोले पगला बाबू तुम तो ऐसे कह रहो हो जैसे तुम अभी इंग्लैंड से मेरी पत्नी से मिल कर आ रहे हो। बाद में साहब बोले तुम्हारी इन बाते से मेरे मन को शांति मिली है, तुम्हारे लिए धन्यबाद, ईश्वर करे तुम्हारी बात सही हो।

इस प्रकार लगभग 1 महिने बाद जब साहब को पत्र मिलता है, तो उन्हें लाहिड़ी जी की बातों का स्मरण होता है। वे लाहिड़ी को अपने कमरे में बुलाते है, और कहते है, पगला बाबू तुम तो कमाल के आदमी हो लगता है, तुम्हें ज्योतिष का ज्ञान है, तुमने मेरी पत्नी के बारे में जो बात बोली थी वह बिल्कुल सही निकली, मेरी पत्नी बिल्कुल ठीक हो गयी है, और भारत के लिए रवाना हो गयी है।

लगभग 20-25 दिन बाद साहब ने लाहिड़ी महाशय को फिर से कमरे में बुलाया और बोले आओ पगला बाबू देखों यही है, मेरी मैडम तभी मैडम लाहिड़ी जी को देखकर चौंक पडी़, और बोली तुम कब आये, अंग्रेज साहब बोले ये तुम क्या पूँछ रही हो। लाहिड़ि महाशय तो सब समझ गये। वे कमरे से बाहर आ गये।

लाहिड़ी महाशय के बाहर आने के बाद मैडम ने बताया कि जब वे बिमार थी उस समय ये व्यक्ति मेरे सिराने आया और सिराने पर हाथ फेरा मैं समझ नही पा रही थी कि ये अनजान व्यक्ति मेरे घर में कैसे घुस गया, तथा कुछ देर बाद इसने मुझे सहारा दिया तथा बिस्तर पर बिठाया तब मेरी सब बिमारियां दूर हो गयी। और इन्होंने कहा बेटी अब तुम बिल्कुल ठीक हो गयी हो, तुम्हारें पति भारत में काफी परेशान है, उन्हें आज ही पत्र लिखकर डाल दो और अपने जहाज का टिकट बुक करा लो। इतना कहकर यह आदमी गायब हो गया।

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