संत दादू दयाल ने समाज में अनेको मतभेदों को दूर कर समन्वय की भावना जागृत की

दादू दयाल का जन्म अहमदाबाद में फाल्गुन सुदीं आठ बृहस्पतिवार संवत् 1601 (सन् 1544 ई0) में हुआ। ये अत्यधिक दयालु प्रकृती के थे, इसलिए इनका नाम दादु दयाल पड़ा। इनके पिता का नाम लोदीराम तथा माता का नाम बसी बाई था।

विक्रम संवत् 1620 में इन्होनें घर का त्याग कर अहमदाबाद से भ्रमण करते हुये, ये राजस्थान पहुँचे जहाँ इन्होनें लगातार 6 वर्षो तक प्रभु का चिन्तन एवं तपस्या की इसके बाद विक्रम संवत् 1625 में सांभर आ पहुँचे यहाँ पर मानव-मानव के बीच द्वेष की भावना को दूर कर उपदेश दिया, इसके बाद दादू दयाल महाराज आमेर गये, तो यहाँ की प्रजा और राजा इनके भक्त हो गये।


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विक्रम संवत् 1643 (1586 ई0) में ये फतेहपुर सीकरी भ्रमण पर गये जहाँ इनकी भेंट अकबर से हुयी अकबर ने इनसे सत्संग की इच्छा जाहिर की यहाँ सत्संग 40 दिनों तक चला अकबर इनके सत्संग से अत्यधिक प्रभावित हुआ और उसने समस्त राज्य में गौ हत्या बंद करने का ऐलान किया। इसके कुछ समय पश्चात् ये नरेना (जयपुर) गये, यहाँ पर इन्होंने एक खेजडे के वृक्ष के नीचे तपस्या की। आज भी इस खेजडे के वृक्ष के दर्शन करना शुभकारी माना जाता है। इसी स्थान पर दादू दयाल जी ने सभी संत शिष्यों को बताया कि वे कब ब्रहृालीन होगे।

इनके प्रमुख शिष्य गरीबदास, सुन्दरदास, रज्जब और बखना थे। इनके दोहे आज भी समाज में अनेको मतभेदों को दूर कर समन्वय की भावना को जागृत करते है, दादू दयाल के द्वारा दिये गये उपदेशो को उनके शिष्य रज्जब जी ने ‘‘दादू अनुभव वाणी’’ के रूप में प्रस्तुत किया। इसमें लगभग 5000 दोहे है।




 दादू दयाल के दोहे


दादू दीया है भला, दिया करो सब कोय।
घर में धरा न पाइए, जो कर दिया न होय।

दादू इस संसार मैं, ये द्वै रतन अमोल।
इक साईं इक संतजन, इनका मोल न तोल॥

हिन्दू लागे देहुरा, मूसलमान मसीति।
हम लागे एक अलख सौं, सदा निरंतर प्रीति॥

मेरा बैरी मैं मुवा, मुझे न मारै कोई।
मैं ही मुझकौं मारता, मैं मरजीवा होई॥

तिल.तिल का अपराधी तेरा, रती.रती का चोर।
पल.पल का मैं गुनही तेरा, बकसहु ऑंगुण मोर॥

खुसी तुम्हारी त्यूँ करौ, हम तौ मानी हारि।
भावै बंदा बकसिये, भावै गहि करि मारि॥

सतगुर कीया फेरि करि, मन का औरै रूप।
दादू पंचौं पलटि करि, कैसे भये अनूप॥

बिरह जगावै दरद कौं, दरद जगावै जीव।
जीव जगावै सुरति कौं, तब पंच पुकारै पीव।

दादू आपा जब लगै, तब लग दूजा होई।
जब यहु आपा मरि गया, तब दूजा नहिं कोई॥

सुन्य सरोवर मीन मन, नीर निरंजन देव।
दादू यह रस विलसिये, ऐसा अलख अभेव॥

दादू हरि रस पीवताँ, कबँ अरुचि न होई।
पीवत प्यासा नित नवा, पीवण हारा सोई॥

माया विषै विकार थैं, मेरा मन भागै।
सोई कीजै साइयाँ, तूँ मीठा लागै॥


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