भारतवर्ष की प्राचीन संस्कृति जिसमें साधु-संतो का विशेष महत्त्व रहा है, जिसमें पुरूष संतो के अलावा महिला संतो की भी विशेष भूमिका रही है। इन संतो में मीराबाई का भी स्थान रहा है। मीराबाई का जन्म सन् 1498 ई0 में पाली के कुड़की गांव में दूदा जी के चौथे पुत्र रतन सिंह के घर हुआ, मीराबाई एक कृष्ण भक्त थी कृष्णभक्ति में इनकी रूचि बचपन से ही थी, इनका विवाह मेवाड़ के एक राजसी घराने में हुआ था।
उदयपुर के महाराजा भोजराज इनके पति थे, जो मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र थे, मीरा इस शादी से ख़ुश नहीं थीं क्योंकि वह कृष्ण को ही अपना सब कुछ मानती थीं। भोज राज 1527 में लड़ाई में मारे गए। उसके बाद उसको अपने ससुराल परिवार में बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। उनके गुरू संत रविदास जी थे। पति के मृत्यु के पश्चात् भी मीराबाई ने अपना श्रृंगार नही उतारा क्योकिं वे श्री कृष्ण को ही अपना पति मानती थी।
तत्पश्चात् मीराबाई साधु-संतो के साथ कीर्तन-भजन करते हुये अपना समय व्यतीत करने लगी। इस प्रकार मीराबाई मंदिरो में जाकर भजन-कीर्तन के साथ-साथ कृष्ण भगवान की मूर्ति के सामने नाचने लगती थी, यही बात मेवाड़ के राजसी परिवार को ठीक न लगी, उन्होनें कई बार मीराबाई को विष देकर मारना चाहा, इस प्रकार मीरा यहाँ से वन्दावन चली गयी, जहाँ वह कृष्ण की भक्ति में लीन रहती थी।
इन्होनें अपने भक्ति भावों से कई भजनों को गाया, तथा इनके द्वारा जो भी गीत गाये गये है, वे राजस्थान एवं गुजराज के जनमानस तक बहुत ही लोकप्रिय है।
संत मीराबाई के गीत
लोक लाज कुलराँ मरजादाँ जग माँ जेक णा राख्याँ री
महल अटारी हमस ब त्यागे
त्याग्यों थाँरो बसनों सहर
राणाजी थे क्याँने राखो म्हाँसू बैर
विख रो प्यालो राणाँ भज्या,
पीवाँ मीरा हाँसा री
बार न बाँको भयो गरल अमृत ज्यों पीयो
राणा थे क्याँने राखो महाँसू बैर
हरि तुम हरो जन की भीर
हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखीए तुम बढायो चीर॥
भक्त कारण रूप नरहरिए धरयो आप शरीर।
हिरणकश्यपु मार दीन्होंए धरयो नाहिंन धीर॥
बूडते गजराज राखेए कियो बाहर नीर।
दासि श्मीरा लाल गिरिधरए दुरूख जहाँ तहँ पीर॥
मेरो दरद न जाणै कोय
हे री मैं तो प्रेम.दिवानी मेरो दरद न जाणै कोय।
घायल की गति घायल जाणैए जो कोई घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणैए की जिन जौहर होय।
सूली ऊपर सेज हमारीए सोवण किस बिध होय।
गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय।
दरद की मारी बन.बन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा की प्रभु पीर मिटेगीए जद बैद सांवरिया होय।
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे
पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥
विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
श्मीराश् के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥
मीराबाई के पद
तो सांवरे के रंग राची।
तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरूए लोक.लाज तजि नाची।।
गई कुमतिए लई साधुकी संगतिए भगतए रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिनए कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागतए और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँए भगति रसीली जांची।।
होरी खेलत हैं गिरधारी।
होरी खेलत हैं गिरधारी।
मुरली चंग बजत डफ न्यारो।
संग जुबती ब्रजनारी।।
चंदन केसर छिड़कत मोहन
अपने हाथ बिहारी।
भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग
स्यामा प्राण पियारी।
गावत चार धमार राग तहं
दै दै कल करतारी।।
फाग जु खेलत रसिक सांवरो
बाढ्यौ रस ब्रज भारी।
मीरा कूं प्रभु गिरधर मिलिया
मोहनलाल बिहारी।।
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई।
जाके सिर मोर मुकट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।
छाड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई।
अर्थ
मेरे ना पिता हैं, ना माता और ना ही कोई भाई मेरे हैं तो सिर्फ गिरधर गोपाल।
मान्यता है,कि इन्होनें अपना अधिकांश समय वृन्दावन में बिताने के पश्चात् मीरा द्वारिका चली गयी जहाँ वे सन् 1560 में भगवान कृष्ण की मूर्ति में समा गई।
0 Comments
thank for reading this article