पहाड़ी ककड़ी की अपनी अलग ही पहचान होती है, जो अपने लाजबाब स्वाद के लिए जाना जाता है, यद्यपि इसका स्वाद खीरे की तरह होता होता है। इसका वैज्ञानिक नाम कुकुमिस मेलो वैराइटी (cucumis melo varieties) है। यह कुकुर बिटेसी वंश का पौधा है। इसे संस्कृत में कर्कटी के नाम से जाना जाता है। इसमें खिलने वाले पुष्पों का रंग पीला होता है।
इसका आकार खीरे से अधिक बड़ा होता है। एक पहाड़ी ककड़ी जो परिपक्व होने से पूर्व जब वह हरी रंग की होती है, बेल से तोड़ी जाय तो उसका वजन लगभग 1 किलो से 1.5 किलो या उससे अधिक भी हो सकता है। ककड़ी की बेल जो आकार में बड़ी होती है। परिपक्व होने के बाद इसका रंग पीला हो जाता है।
ककड़ी को अन्य फसलों के साथ भी उगाया जाता है। जैसे मडवा की खेती के साथ-साथ इसकी पैदावार अच्छी व उन्नत होती है। ककड़ी का पौधा आसानी से उगने वाला पौधा होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है, कि ककड़ी के पौध के लिए न तो किसी प्रकार के रासायनिक उर्वरक की आवश्यकता होती है, और न ही इसमें कीटनाशक का उपयोग किया जाता है। इसलिए लोगों द्वारा पहाड़ी ककड़ी को काफी पसंद किया जाता है। इसमें नेचुरल विटामिन्स तथा मिनरल पाया जाता है।
दैनिक जीवन में उपयोग
पहाड़ी क्षेत्रों में ककड़ी आय का भी एक अच्छा स्रोत है, जिन स्थानों पहाड़ी ककड़ी का उत्पादन अधिक मात्रा में होता है, वहाँ के लोगों द्वारा इससे सूखी बड़ी तैयार की जाती है, जिसमें ककड़ी को बारिक कददु कस करके उसमें पिसी हुई दाल को मिक्स करके छोटे-छोटे आकार बनाकर धूप में सूखाया जाता है।
जब बड़ी से नमी पूरी तरह से सूख जाती है, तब इसे किचन में एक बर्तन में स्टोर किया जाता है। तथा इसका उपयोग साल भर किया जाता है, जिसे कड़ी या झोली का स्वाद बढ़ाने के लिए उपयोग किया जाता है।
पहाड़ी ककड़ी और सिले में पिसे नमक को देखकर मुँह में पानी आ ही जाता है, पहाड़ी क्षेत्रों में ककड़ी का भरपूर स्वाद लेने के लिए सिले में नमक पिसा जाता है, जिसमें हरी मीर्च, धनिया, जीरा, लहसून, हल्दी आदि मिलाकर तैयार किया जाता है, तथा सिले में पिसे नमक को ककड़ी पर लगाकर इसके स्वाद का भरपूर आनन्द लिया जाता है।
पहाड़ी ककडी को दही के साथ रायता के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
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