ऋषि दधीचि एक ऐसे तपस्वी थे, जिन्होनें लोक कल्याण के लिए अपनी अस्थियां भी दान में दे दी थी। इनका तप और दयालुता पूरे संसार के व्याप्त थी, इसीलिए आज भी लोग ऋषि दधीचि को बडे़ सम्मान के साथ याद करते है। ऋषि दधीचि एक परम तपस्वी थे, ये स्वभाव से अत्यंत दयालु प्रकृति के थे, सदैव दूसरे का हित करना ही ये अपना परमधर्म मानते थे। इनका स्वभाव न केवल देव, मानव के प्रति अपितु पशु-पक्षियों के प्रति भी सहानुभूतिशील था। हिंसक से हिंसक पशु भी इसने इनके आश्रम में आकर शांत स्वभाव का हो जाता था। दधीचि ऋषि का आश्रम नैमिषारण्य में था।
ऋषि दधीचि के बारे में
यास्क के अनुसार इनके पिता का नाम ‘अथर्वा’ तथा माता का नाम ‘चिति’ था। इसीलिए इनका नाम दधीचि पड़ा। पुराणों में इनकी माता का नाम शांति मिलता है। इनकी पत्नी का नाम ‘गभस्तिनी’ था, महर्षि दधीचि भगवान शिव के परम भक्त थे इनकी निष्ठा जन्म से ही वैराग्य में थी। महर्षि दधीचि को वेद और शास्त्र का सम्पूर्ण ज्ञान था।
ऋषि दधीचि का अस्थिदान
एक समय जब भयानक राक्षस वृतासुर ने देवलोक पर आक्रमण कर इन्द्र सहित सभी देवताओं को देवलोक से बाहर निकाल दिया। सभी देवता वृतासुर से परेशान होकर त्रिदेव ब्रहृमा, विष्णु और महेश जी के पास गये, और त्रिदेवो के पास अपनी समस्या रखी लेकिन समस्या का कुछ भी हल न निकल पाया तब ब्रहृमा, जी ने देवताओं के लिए उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में परम तपस्वी दधीचि नाम के तपस्वी रहते है।
यदि वे अपनी अस्थियों को दान कर दे और उन अस्थ्यिों से एक वज्र बनाया जाय तो उस वज्र से वृत्रासुर राक्षस का अंत हो सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नही है। इस प्रकार देवताओं के राजा इन्द्र देव को महर्षि दधीचि की शरण में जाना पड़ा उन्होनें महर्षि को ब्रहृमा जी द्वारा कही हुयी बात बतायी। महर्षि दधीचि अपनी अस्थियों को दान में देने के लिए तैयार हो गये। उन्होनें समाधी लगायी और अपनी देह त्याग दी। जिस समय उन्होनें अपनी देह का त्याग किया उस समय उनकी पत्नी ‘गभस्तिनी’ आश्रम में मौजूद नही थी। जब उसने अपने पति को देखा तो वह भी सती होने के लिए तैयार हो गयी।
दधीचि ऋषि के वंशज
महर्षि दधीचि की पत्नी ‘गभस्तिनी’ जब अपने आश्रम में पहुँचती है, तब तक उसके पति संसार के कल्याण के लिए देह त्याग कर चुके थे, वे सती होने के तैयार हो जाती है, सभी देवताओं ने उसे ऐसा करने से मना किया क्योकिं ‘गभस्तिनी’ गर्भवती थी, देवताओं ने उसे अपने वंश चलाने की सलाह दी लेकिन वह नही मानी इस प्रकार देवताओं ने उसे कहा कि वह अपना गर्भ देवताओं के सौप दे इस बात के लिए ‘गभस्तिनी’ तैयार हो गयी। उसने अपना गर्भ देवताओं को सौपा और सती हो गयी, तब देवताओं ने ‘गभस्तिनी’ के गर्भ को बचाने के लिए पीपल को ये दायित्व सौपा कुछ समय पश्चात् गर्भ से बालक हुआ पीपल द्वारा बालक का लालन-पालन किये जाने के कारण इस बालक का नाम पिपलाद रखा गया। इसी कारण महर्षि दधीचि के के वंशज जिन्हें दाधीच कहा जाता है।
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