हरिद्वार तीर्थ स्थल जिसे गंगाद्वार, मायापुरी, स्वर्गद्वार आदि नामो से भी जाना जाता है।

हरिद्वार एक पौराणिक तीर्थ स्थल है, इस पवित्र तीर्थ स्थल को पौराणिक साहित्य में गंगाद्वार, मायापुरी, स्वर्गद्वार आदि नामो से जाना जाता है। यह तीर्थ स्थल समुद्रतल से 294 मी0 की ऊँचाई पर स्थित है। पौराणिक साहित्य में हरिद्वार के पांच स्थानों का विशेष महत्त्व बताया गया है। हर की पैड़ी, नीलधारा, कुशावर्त, बिल्व पर्वत, कनखल आदि। हरिद्वार पवित्र नगरी में प्रत्येक 12 वर्ष में पूर्ण कुम्भ का पर्व तथा 6 वर्ष में अर्द्ध कुम्भ का पर्व मनाया जाता है। देहरादून से यहाँ की दूरी लगभग 25 किमी0 है। इस तीर्थ नगरी में देव संस्कृति, गुरुकुल कांगड़ी, पतंजलि, आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय आदि है।



भगवान शिव के उपासक जो शैव सम्प्रदाय वाले होते है, तथा भगवान केदार नाथ की यात्रा पर जाते है, इस तीर्थ नगरी को "हरद्वार" भगवान शिव के नाम से जोड़ते है। तथा जो उपासक भगवान बद्रीनाथ की यात्रा पर जाते है, इस पवित्र तीर्थ स्थल को हरिद्वार अर्थात श्री हरि का द्वार के नाम से जोड़ते है। पूर्ण कुम्भ तथा अर्द्ध कुम्भ के समय यहाँ  भारत के सभी साधु-संत व कई श्रद्धालु कुम्भ में स्नान के लिए आते है, इसके अलावा कई विदेशी भी इस अवसर पर कुम्भ मेले में आते है।


हरिद्वार का कुंभ मेला (haridwar ka kumbh mela)

हरिद्वार में कुम्भ का मेला 6 वर्ष में मनाया जाता है। जिसे अर्द्ध कुम्भ कहा जाता है। तथा प्रत्येक 12 वर्ष में पूर्ण कुम्भ मेला लगता है। हरिद्वार तथा प्रयाग राज में मनाये जाने वाले कुम्भ मेला में, तथा प्रयाग राज तथा नासिक कुम्भ मेले में 3 सालो का अन्तराल होता है। अद्धकुम्भ और पूर्ण कुम्भ के समय देश के कोने-कोने से श्रद्धालु पैदल, वाहन आदि से कुम्भ मेला में पहुँचते है।

हर की पौड़ी हरिद्वार (har ki pauri haridwar)

हर की पौडी पवित्र तीर्थ नगरी हरिद्वार का मुख्य घाट है। इस स्थान पर गंगा माता मंदिर भी है, यहाँ लाखो श्रद्धालु द्वारा डुबकी लगाई जाती है, और श्रद्धालु गंगा के पवित्र जल को लेकर अपने घरो के लिए ले जाते है, जिसे लोगों द्वारा किसी विशेष धार्मिक कार्य के समय शुद्धीकरण के लिए उपयोग में लाया जाता है।



प्रतिदिन साधु-संन्यासी सूर्यास्त के बाद इस स्थान पर माता गंगा की महाआरती करते है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार समुद्र मंथन के समय जब देव और दानावों के मध्य अमृत पाने के लिए झगड़ा हुआ तो विश्वकर्मा जी अमृत कलश को बचाकर ले जा रहे थे उस समय अमृत कलश से कुछ बूँदे अमृत की इस पवित्र नगरी में गिरी जिस-जिस स्थान पर अमृत की बूँदे गिरी वो स्थान हर की पौडी बन गया।




कनखल हरिद्वार (kankhal haridwar)

यही वह स्थान है। जहाँ राजा दक्ष प्रजापति ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया था, इसी स्थान में भगवान शिव का विवाह माता सती के साथ हुआ था, दक्ष प्रजापति यद्यपि भगवान शिव के विरुद्ध थे, दक्ष प्रजापति भगवान शिव तथा माता सती के साथ विवाह से सहमत नही थे, माता सती के जिद के आगे दक्ष प्रजापति को झुकना ही पड़ा। तथा माता सती का विवाह भगवान शिव के साथ हुआ।


मान्यता है कि दक्ष प्रजापति को दिये गये वचनो के अनुसार भगवान शिव श्रावण मास में दक्षेणेश्वर बनकर पूरे सावन के महिने में अपने ससुसाल कनखल में विराजते है।


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