चैतन्य महाप्रभु भक्तिकाल के संतो में से एक प्रमुख संत: चैतन्य महाप्रभु श्री शिक्षा अष्टकम (chaitanya mahaprabhu ashtakam)

चैतन्य महाप्रभु 16वीं शताब्दीं के एक महान संत थे, इन्होनें समाज में जाति-पात भेद-भाव की भावनाओं को दूर करने की कोशिश की किसी जाति में भेद-भाव नही किया सभी जातियों को एकसूत्र में बांधने का प्रयासा किया। इन्होनें विलुप्त हो रहे वृंदावन को फिर बसाया इनके बारे में कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज एक मिथक ही होता। इनके द्वारा वृंदावन में सात वैष्णव मंदिरों की स्थापना की गयीः गोपीनाथ मंदिर, गोविंददेव मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर, राधा दामोदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर आदि सात मंदिर है, जिन्हें सप्तदेवालय कहा जाता है।

 

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चैतन्य महाप्रभु की जीवन

चैतन्य महाप्रभु का जन्म 1486 में पश्चिम बंगाल के नवद्वीप गांव में हुआ था, जिसे वर्तमान में मायापुर के नाम से जाना जाता है। इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र तथा माता का नाम सची देवी था। ये आध्यामिक प्रवृति के थे, इनकी माता सची देवी ने 8 पुत्रियों को जन्म दिया परन्तु वे सभी बाल्यकाल में ही मुत्यु को प्राप्त हुई। 
 
कुछ समय पश्चात् जगन्नाथ मिश्र और उनकी पत्नी सची को दो पुत्रों की प्राप्ति हुयी विश्वरूप और विश्वंभर, विश्वंभर को सभी निमाई नाम से पुकारते थे। इनका वर्ण (रंग) गौरवर्ण का था इसलिए लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि नाम से भी संबोधित करते थे।

वैवाहिक जीवन

इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ जब इनकी आयु 15-16 वर्ष थी, र्दुभाग्यवश इनकी पत्नी की मुत्यु हो गयी अपने वंश को आगे चलाने के लिए इनको दूसरी शादी करनी पड़ी इनकी दूसरी पत्नी नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया थी।

संन्यासी जीवन

जब इनकी किशोरावस्था थी, उस समय इनके पिता का निधन हो गया था, सन् 1509 में जब ये अपने माता-पिता का श्राद्ध करने के लिए गया (बिहार) पहुँचे उस समय इनकी मुलाकात ईश्वरपुरी नाम के संत से हुई इस संत ने निमाई (चैतन्य महाप्रभु) को कृष्ण नाम रटने को कहा ये इस नाम से इतने अधिक प्रभावित हुये और उन्होनें अपना घर छोड़ दिया और कृष्ण भक्ति में लीन हो गये। 

इनकी भगवान श्री कृष्ण के प्रति असीम भक्ति, निष्ठा और विश्वास के कारण इनके कई अनुयायी हो गये इनके सर्वप्रथम शिष्य नित्यानंद प्रभु अद्वैताचार्य महाराज थे, इन्होनें अपने इन दो शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर नाच-गाकर हरि नाम का संकीर्तन प्रारंभ किया।

चैतन्य महाप्रभु द्वारा की गयी यात्रायें

चैतन्य महाप्रभु संन्यासी जीवन के उपरांत देश में अनेको जगह जाकर हरिनाम की महिमा का प्रचार-प्रसार किया और सन् 1515 में विजयादशमी के दिन जंगल के रास्ते से ही इन्होनें वृंदावन की यात्रा प्रारंभ की ये कार्तिक पूर्णिमा को वृंदावन पहुँचे, इसलिए आज भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन वृंदावन में गौरांग (चैतन्य महाप्रभु) का आगमनोत्सव मनाया जाता है। 

इसके अलावा इन्होनें काशी, हरिद्वार, कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), श्रृगेरी (कर्नाटक), द्वारिका, मथुरा आदि स्थानों में भी हरिनाम का प्रचार-प्रसार किया। इन्होनें अपने जीवन के अंतिम पल जगन्नाथ पूरी में ही बिताये। सन् 1533 में मात्र 47 वर्ष की अल्पायु में इन्होनें अपने प्राण त्याग दिये।

 

चैतन्य महाप्रभु श्री शिक्षा अष्टकम (chaitanya mahaprabhu ashtakam)- चैतन्य महाप्रभु द्वारा आठ श्लोक प्रदान किये गये जिन्हें ‘शिक्षाष्टक’ कहा जाता है-

चेतोदर्पणमार्जनं भव.महादावाग्नि.निर्वापणम्
श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू.जीवनम् ।
आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम्
सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण.संकीर्तनम् ॥१॥

 

नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्तिस्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥२॥

 

तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥३॥


न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद् भक्तिरहैतुकी त्वयि॥४॥


अयि नन्दतनुज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-स्थितधूलिसदृशं विचिन्तय॥५॥

 

नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥६॥


युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द विरहेण मे॥७॥


आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्.मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्.तु स एव नापरः॥८॥

 

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