श्री वल्लभाचार्य जी महाराज भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त

श्री वल्लभाचार्य भगवान श्री कृष्ण के परम भक्त थे, इनके द्वारा भगवान श्री कृष्ण के श्रीनाथ स्वरूप की पुजा की गयी, इनके पूर्वज भारद्वाज गोत्र के तैलंग ब्राह्यमण थे। ये बाल्यकाल से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे, इन्होनें अपने बाल्यकाल में ही वेद, पुराण, वेदांग, आदि विभिन्न प्रकार की धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वल्लभाचार्य जी के विचार थे कि भक्ति ही एक ऐसा साधन है, जिससे मुक्ति का मार्ग मिलता है।

इनके स्तोत्र मधुराष्टक में भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप, चरित्र, गुण और लीलाओं को उन्होनें इस स्तोत्र में बहुत ही मधुर शब्दों और भावों के साथ अभिव्यक्त किया है।

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जन्म

इनका जन्म सन् 1479 ई0 में काशी (वाराणसी) में हुआ, इनके पिता का नाम श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित तथा माता का नाम इल्लमागारू था। जब इनकी माता गर्भवती थी, तो हिन्दु और मुस्लिम के मध्य संघर्ष के समय लगभग 15वीं शताब्दी के मध्य इनका परिवार छत्तीसगढ़ चला गया। 

जन्म के समय विपरीत परिस्थितियां

यात्रा के दौरान अनेक कष्टों को सहते हुये जब लक्ष्मण भट्ट अपने संगे संगी-साथियों के साथ रायपुर के जिले चंपारण्य नामक वन से यात्रा कर रहे थे, इसी दौरान इनकी पत्नी को प्रसव-पीड़ा सताने लगी उनके साथ सभी लोग पास ही के चौड़ा नगर में विश्राम करना चाहते थे, लेकिन लक्ष्मण भट्ट की पत्नी वहां तक पहुंचने में सर्मथ न थी। लक्ष्मण भट्ट के पास अपनी पत्नी के साथ उस निर्जन वन में रहने के अलावा कोई अन्य दूसरा उपाय न था। उनके सभी साथी उन्हें छोड़कर चौड़ा नगर में पहुँच चुके थे, उसी रात को लक्ष्मण भट्ट की पत्नी इल्लमागारू ने उस वन में एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे एक बालक को जन्म दिया जो कि पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन ज्ञात हुआ, इल्लमागारू ने अपने पति लक्ष्मण भट्ट को बताया कि बालक मृत पैदा हुआ है। रात्री के समय पति और पत्नी दोनों अधिक आंकलन न कर पाये और उन्होनें ईश्वर इच्छा मानकर बालक को एक वस्त्र में लपेटकर शमा वृक्ष के निचे एक गड़ढे में रखकर ऊपर से सूखे पत्तियों से ढक दिया, और वहां से चौड़ा नगर पहुँचकर रात्री विश्राम करने लगे।

सुबह प्रातःकाल आने वाले यात्रियों ने बताया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट अब दूर हो गया है, इस प्रकार उनके कुछ साथी ये समाचार सुनकर काशी वापस जाने लगे तथा कुछ साथी  दक्षिण की ओर चले दिये, लक्ष्मण भट्ट और उनकी पत्नी भी काशी जाने वाले साथियों के साथ शामिल हो गये। जब वे उस स्थान पर पहुँचे जहाँ वह गत रात्री को रूके थे, जहाँ लक्ष्मण भट्ट की पत्नी इल्लमागारू ने एक शमा वृक्ष के नीचे एक पुत्र को जन्म दिया था, मृत समझकर उसे वही छोड़ दिये थे, अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया जिस गढ़डे में उन्होनें बच्चे को रखा था, गढ़डे के चारों और एक प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल बना हुआ था, जिसके बीच वह बालक खेल रहा था, लक्ष्मण भट्ट और उनकी पत्नी इल्लमागारू को अत्यधिक खुखी हुयी। इल्लमागारू ने नन्हें बालक को गोद में उठा लिया और उसे स्तनपान कराया। इस वन में बालक का नामकरण किया गया, तथा उसका नाम वल्लभ रखा गया, यही बालक आगे चलकर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य कहलाया। ये बालक अग्नि से उत्पन्न और भगवान मुखाग्रि स्वरूप होने के कारण वैश्वानर का अवतार माना गया।

इनका जन्म जिस समय हुआ वह राजनैतिक, धार्मिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से बडा ही संकट का समय था। जब वल्लभाचार्य की आयु मात्र 11-12 वर्ष की थी इनके पिता का देहावसान दक्षिण के श्री वेंकटेश्वर बाला जी में हो गया यद्यपि ये इस आयु में पूर्ण प्रकांड विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे।

इन्हें वैष्नवतार (अग्नि) का अवतार भी माना जाता है। इनका विवाह पंडित श्री देवभट्ट जी की कन्या महालक्ष्मी से हुआ, कुछ समय पश्चात् इनके यहा दो पुत्रो का जन्म हुआ श्रीनाथ और श्री विट्ठलनाथ। 

वल्लभाचार्य के शिष्य

इनके लगभग 84 शिष्य थे इनमें से कुछ प्रमुख शिष्य कृष्णदास, सूरदास, कुंभनदास, परमानंद दास आदि इनके प्रमुख शिष्य थे।

वल्लभाचार्य जी के प्रमुख ग्रन्थ

वल्लभाचार्य ने अनेक ग्रंथों, भाष्यों, नामावलियों और स्तोत्रों की रचना की इनमें से कुछ इस प्रकार है।  यमुनाष्टक, बालबोध, मुक्तावली, सिद्धान्त, पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेद, सेवाफल, अन्तःकरणप्रबोध, सिद्धान्तरहस्य, नवरत्नस्तोत्र, विवेकधैर्याश्रय, श्रीकृष्णाश्रय, चतुःश्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पंचपद्यानि, संन्यासनिर्णय, निरोधलक्षण 


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